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लेखनी कहानी -23-Mar-2023

कुमारसंभवम्-17 
 
 सप्तदश सर्ग

तारकासुर ने देवसेना पर वाणों की ऐसी झड़ी लगा दी कि देवसेना विचलित हो गयी। तारक ने इन्द्रादि देवताओं के गले में नागफाँस के फन्दे डाल दिये। सभी देवता इस विपत्ति से छुटकारा पाने हेतु कुमार कार्तिकेय के समीप पहुँचे। कुमार के दृष्टिपात करने मात्र से देवताओं के नागफाँस छूट गये। इस चमत्कार से तारकासुर अत्यधिक क्रोधित हुआ। उसने सारथी से अपना रथ कुमार कार्तिकेय के निकट ले जाने के लिए कहा। कुमार के सम्मुख पहुँचकर तारक ने उन्हें इन्द्रादि देवताओं का साथ छोड़ देने के लिए कहा, परन्तु क्रोधित कुमार ने तारक पर वाण वर्षा आरम्भ कर दी, प्रत्युत्तर में तारक ने भी वाणों का कौशल दिखाया। जब तारकासुर परास्त होने लगा, तब उसने मायावी युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। उसने ”वायव्य“ नामक वाण धनुष पर चढ़ाया। वाण संधान करते ही प्रचण्ड वेग से धूल भरी आँधी चलने लगी। इस आँधी से देवसेना का साहस क्षीण होने लगा, परन्तु कुमार कार्तिकेय ने अपनी दिव्य शक्ति से देवसेना को पुनः नवशक्ति प्रदान कर दी। इसे देखकर तारकासुर बहुत क्रोधित हुआ, उसने अग्निवाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। आकाश में काला धुआं एवं आग ही आग व्याप्त हो गयी। देवता भयभीत होकर कुमार कार्तिकेय के समीप जा पहुँचे। कुमार ने ”वारुणास्त्र“ चलाकर अग्नि वाण के प्रभाव को निष्क्रिय कर दिया। तारकासुर क्रोधित होकर अपना रथ छोड़कर कुमार की ओर झपटा। उसने तलवार से कुमार पर प्रहार करना चाहा, परन्तु इससे पूर्व ही कुमार ने भाले का प्रचण्ड प्रहार कर राक्षस तारक का वध कर दिया। राक्षस तारक के वधानन्तर देवताओं की सेना में हर्ष की लहर दौड़ गयी।

इसी के साथ महाकाव्य का अन्तिम एवं सत्र्हवाँ सर्ग समाप्त हो जाता है। महाकवि ने इस पवित्र गाथा को केवल यहीं समाप्त नहीं किया, वे महाकाव्य के उद्देश्यों के निकट इस कथावस्तु को लाना चाहते थे। भारतीय परम्परा की काव्य समाज पर कल्याणकारी प्रभाव डाले, अतः इसे सुखान्त बनाया जाए। संभवतः कवि प्रवर ने इसी दृष्टि से असज्जन पर सज्जन की विजयश्री के साथ अपने काव्य की इतिश्री की है। विजय का मङ्गलगान करते हुए कवि ने अन्तिम छन्द इस प्रकार लिखा है -

    इति विषमशरारेः सूनुना जिष्णुनाजौ 
    त्रिभुवनवरशल्ये प्रोद्धृते दानवेन्द्र। 
    बलरिपुरथ नाकस्याधिपत्यं प्रपद्य 
    व्यजयत सुरचूडारत्नघृष्टाग्रपादः ॥

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